व्यंजना

मंगता भोगी

- हरीचरन प्रकाश


पहली-पहली बार तो वह मुझे एक आइटम किस्म का आदमी लगा था। अडतीस-चालीस की उम्र, अच्छे कपड़े लत्ते, लेकिन औरतों की शारीरिक शैली में मोटापा उसकी काया में भर रहा था। सीना पिलपिला रहा था, पेंदा फैल रहा था और यह कहना मुश्किल था कि पेट निकला है या पेडू। तालीमयाफ्ता लगता था, लेकिन, सूरत कुछ ऐसी मानों पढ़ाई-लिखाई की मजूरी कर रहा हो। उसके पास चुने हुए सवाल थे जिनके जवाब वह मुझसे चाहता था। थोड़ा बातूनी भी था इसलिए उसके सवालों का जवाब देने में मन लग रहा था।


मंगतो की उस कतार में उसने मुझे ही क्‍यों चुना, पता नहीं। क्या जाने, उस कतार में मैं अकेला चश्मा लगाता हूँ, इसलिए या मैला कुचैला नहीं दिखता हूँ इसलिए।


क्या पता!


उसके साथ एक जवान स्त्री थी जिसके हाव-भाव में कन्याओं जैसी उत्सुकता थी। देह-दशा को देखते हुए भी मेरा अन्दाजा है तीस पार कर चुकी होगी, लेकिन यह फल उम्र की डाल पर आराम से और बढ़िया पक रहा था। उसने फूली-फूली सलवार और आधी आस्तीन का ढीला-ढाला कुर्ता पहन रखा था जो हवा के जरा सा तेज होते ही फड़फड़ा कर यहाँ वहाँ कोई झरोखा खोल देते थे।


मैं भी कहाँ भटक गया। इस बातों में भला क्‍या रखा है।


तो, बात यह हो रही थी कि उसने मुझे अपने सवालों के लिये चुना। इसके पहले कि 'दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की हो” या 'भगवान बनाये रखें' जैसे जमे जमाये जुमले मैं अदा करूँ, उसने मेरे कटोरे में इतना बड़ा नोट डाला कि मुझे अचम्भा हुआ। कुछ शंका के साथ मैंने नोट को आँखों की सीध में लाकर रोशनी से भेदा, उंगलियों से परखा; नोट असल था। मैंने नोट को कटोरे में पड़े गणेश-लक्ष्मी के शुभंकर सिक्के से दबा दिया और उस आदमी की ओर सवालिया अन्दाज में ठुड्डी उचकाई।


“बन्धु, मेरा नाम मनु वार्ष्णय है। मुझे आपसे कुछ काम की बाते करनी है।” उसने एकदम से कहा।


सोच तो मैं भी रहा था कि मेरे कटोरे में धनवर्षा हुई है, उसका क्या मतलब हो सकता है क्योंकि भीख मांगना एक व्यवसाय है, व्यापार नहीं। उसने मुझे सोचने का वक्‍त भी नहीं दिया; सीधे-सीधे बताया कि वह भिखारियों का आर्थिक और सामाजिक सर्वेक्षण कर रहा है। मैंने बिना समझे-बूझे सर हिलाया। इतना तो मुझे अन्दाजा हो गया था कि इस काम और पैसे में कोई झोल नहीं होगा; यद्यपि यह आर्थिक, सामाजिक और सर्वेक्षण जैसे वाक्यनिर्माता और व्याख्यानजनक शब्द तब भी मेरी समझ से बाहर थे और आज भी हैं।


और, सच पूछिए तो वह खुद भी कहाँ का समझदार था। उसे जिन्दगी का कुछ अता-पता नहीं था और वह भी मुझ मंगते की क्‍या जिन्दगी। दुआ देता हूँ, दया चाहता हूँ; फिर भी, मैं उसके मुकाबले आराम से बैठा हुआ था। बना-चुना के मैं जो भी परोस रहा था, उसे खाना पड़ रहा था। मैं उसके जहन से आंकड़े निकाल कर फेंक रहा था और एक कहानी पैदा कर रहा था। कहने की जरूरत नहीं कि इस कहानी में भाषा उसकी है, बस कहीं कहीं अंगूठे की छाप जैसी अशिक्षित बोली-बानी मेरी है। आगे चल कर यह कहानी मैं उसे सौंप दूँगा; जैसे चाहे, कहे।


मुझसे कोई पूछे तो मैं यही कहूँगा कि भिक्षावृत्ति संसार के सबसे पुराने व्यवयायों में से एक है। किसी ज्ञानी ने मुझे बताया था कि हमारे जिले के गजेटियर में दर्ज है कि यह मेरे गांव के लोगों का खानदानी व्यवसाय है। हमारी पिछली पीढ़ियो को भीख मांगने पर श्रद्धा थी जिसे वह अपना अधिकार और दायित्व समझते थे।


हमारा गांव जिस नदी के पास बसा है, उसके दो नाम हैं। जिले में चौदह कोस के घेरे तक उसका विस्तीर्ण प्रवाह पुष्यसलिला के नाम से जाना जाता है और शेष यात्रा में उसका नाम मल्ही था। आस-पास के तीन चार जिलों के लोग उसी पुण्यसलिला के किनारे अपने बुजुर्गों का दाह करके संतुष्ट और कभी-कभी तो सगर्व दुखी होते थे।


स्मशान घाट से मुड़कर नदी एक अर्द्धचन्द्राकार घुमाव लेती हुई बहती थी। यहाँ मंथरगति, वहाँ चपल चाल; कभी अंतरनादमय तो कभी विशद निनाद करती हुई नदी कतार से बने हुए मन्दिरों के चरण तल में बने कच्चे-पक्के घाटों की फेरी लगाती थी। नदी सुपूजित थी, जयकारा लगाने वालों की मय्या थी; लेकिन जैसे कोई देह बिस्तर में करवट बदलती है उसी तरह से वह अपने पेटे में करवट बदलती थी।


मनमौजी मय्या, धारा बदल कर कभी किसी मन्दिर को अपनी गोद में डुबा लेती, तो कभी किसी मन्दिर को इतनी दूर छोड़ देती थीं कि वह मन्दिर अनाथों का डेरा हो जाता था। कभी स्मशान घाट के किसी टुकड़े को लील लेती, तो कभी घाट से इतनी दूर चली जाती कि वहाँ तक पहुंचते-पहुंचते लोग बकने-झकने लगते। हमारे गाँव मँगियाना की तो वह ऐसी की तैसी करती रहती थी। जब चाहती किसी न किसी का खेत हड़प लेती या जमीन का एक टुकड़ा दान में दे देती। हमारे बिस्सा-बिस्सा भर खेतों का खाता और पता बदलता रहता।


मैंगियाना के वासियों का धर्म लापता था। अंग्रेजी शासन काल में जब जनगणना शुरू हुई तो उन्हें किसी प्रचलित धर्म के खाते में दर्ज करने के बजाय, उनके रीति रिवाज और भीख के पेशे का उल्लेख करते हुए मँगियाना वालों के सर पर यह टीप लगा दी गई कि यह एक शिथिल चरित्र समुदाय है। ब्योरा दर्ज करने वालों को तो आप जानते ही हैं कि उनके सवाल परतंत्र होते हैं तो जवाब कहां से स्वतंत्र होंगे। अब, आप ही बताइए किसी अण्डाहारी से कि कोई पूछे कि आप शाकाहारी हैं या मांसाहारी तो वह क्‍या जवाब देगा? तो मेरे गाँव में आकर उन्होंने पूछा कि हिन्दू या मुसलमान? हमारे पुरखे क्‍या जवाब देते, मुँह बा कर रह गए। वह भजन गा कर भी भीख माँग लेते थे और मर्सिया सुनाकर भी। मछली दबा कर खाते थे, लेकिन गोश्त खाना पाप समझते थे। ऐसों को अंग्रेज और उनके कारकुन क्‍या खाक समझेंगे, व्यर्थ में बदनाम कर दिया। दुष्ट कहीं के।


मुझे लगा कि मेरी दाढ़ी में सफेदी के जितने तिनके हैं, सब बलबला रहे हैं। मैं पीढ़ियों के क्षोभ के उतरने की प्रतीक्षा करने लगा। ज्यादा देर नहीं लगी। बात का सिरा फिर से अपने हाथ में लेते हुए उदासीपूर्ण स्थिरता के साथ मैंने कहा, “न अंग्रेज समझ पाए और न आज के हाकिम कि भीख मांगना कितने धीरज और हुनर का काम है। यह अलग बात है कि बिरादरी के कुछ बहेलले छोटी-मोटी चोरी कर लेते थे, लेकिन उससे पूरी बिरादरी और जवार का नाम तो नहीं धरा जा सकता। नाहक ही कलम चला दी।”


आखिरकार, हम खानदानी भिखारी थे, कोई सड़कछाप मंगते नहीं जैसे कि अब हैं।


“भीख मांगने के लिए हम तरह-तरह के स्वांग रचते थे। हमें खबर रहती थी कि मरनी-करनी का भोज कहाँ होने वाला है, तो इसके लिए जोगिया कपड़े पहन कर सोलह कोस तक का घावा मार लेते थे। अब, यह सब देखने में नहीं आता है। आता भी तो मुझसे इतना खटकरम नहीं सधता। शुरू से ही मुझे सीधे सादे ढंग से मांगना अच्छा लगा। मैं किसी भी कमाऊ मन्दिर पर जम कर बैठ जाता था। मौका तक कर किसी अच्छी चलती हुई दरगाह भी हो लेता था। गुरूदारे के लंगर भी छक आता था। अकेली जान की सब जगह गुजर है और हमारे जवार में समय का एक ऐसा मुकाम आता था कि सब अकेली जान हो जाते थे।


मैं कुछ देर के लिए रूका। एक दानी दर्शनार्थी हर कटोरे में हाथ भर की दूरी से लड्डू टपकाता हुआ कुछ इतनी तेजी से गुजर रहा था मानों कहीं की छूत लगी हुई हो। मैंने हाथ में ही उसका लड्डू लोक लिया और सीधे मुंह में डाल लिया। देसी घी की सफल नकल से सिक्‍त लड्डू। उठ कर बगल के नल से चार चुल्लू पानी पिया और जो छूट गया था उसे बताने लगा।


“पता नहीं क्‍यों ईसाइयों के चर्च के पास मैं फटक नहीं पाया। लगता था कि वहाँ की प्रशान्त गतिविधियों में मेरी और मेरे कटोरे की गुजर नहीं है, अलबत्ता उनकी दयालुता के कई अन्य दफ्तर खुले हुए थे जहां से कभी-कभी मैं पुराने विदेशी कपड़े और कम्बल झीट लाता था।”


“अजी रुकिए, क्‍योंकि मैं रुकता हूँ। मैंने कहा था न कि यह कहानी मैं अधिक देर बांच नहीं पाऊंगा।”


आगे जो भी कहेगा वहीं पढ़ाई-लिखाई का घुमंत्‌ रोजगारी कहेगा। इसलिए, मैं कहानी के तट पर बैठ कर उसका प्रवाह देखूंगा।


आगे की कहानी मनु की जुबानी।


“भाई जी, अपना नाम बताइए?” लाल ध्वजा वाले मन्दिर के किनारे बैठे उस ठसकेदार भिखारी से मैंने यानी मनु वार्ष्णय ने पूछा।


उसने चश्मा माथे पर खिसकाया और पूछा “क्या करोगे, नाम जानकर?”


“अरे भाई, बात करने के लिए नाम जरूरी है। नहीं तो, क्‍या बोलेंगे, क्या लिखेगे और क्‍या पढ़ेगें।”


“तो आप ही मेरा कोई नाम रख दीजिए।”


“नहीं जी, ऐसे कैसे चलेगा। 'कुछ तो मदद कीजिए” मैंने मनुहार की।


“मल्हू,


"मल्हू।”


“हॉ।”


मुझे लगा कि यह नाम उसका नहीं है। उसने किसी गिरी पड़ी चीज की तरह इसे उठाया और मेरी तरफ उछाल दिया। लेकिन अगर नाम में ही अटक गए तो काम कैसे होगा। मल्हू ही, सही।


“हाँ, सही है। यह तो मौका चूकने की बात है, नहीं तो मेरा नाम मानवानन्द भी हो सकता था। साधुओं की एक टोली घूमते घामते मेरे गांव आई थी। कभी-कभी सोचता हूँ कि साथ लग लेता तो अच्छा था। शान से दान ग्रहण करता, हाथ फैलाए तो न फिरता। खैर, जो हुआ, सो हुआ; अपने गांव के और अपनी नदी से दूर तो नहीं हूँ। आप तो कहीं दूर से आए लगते हैं?” मल्हू ने जैसे मेरा मन पढ़ते हुए इतना सब कह डाला।


“हाँ भाई, घर से दूर मारा-मारा फिर रहा हूँ” मैंने कुछ इस तरीके से कहा मानों हम दोनों के कष्ट एक जैसे हों।


मल्हू ने इस कूट तुलना को रास्ते पर लाने में देर नहीं की। उसकी पुतली फिरी और मेरी सहकर्मिणी पर जाकर सिकुड़ गई।


“कोई बात नहीं, अकेले तो नहीं हैं” कहते हुए वह मजे-मजे मुस्कराया।


मुझे बुरा लगा। मैंने फौरन पैंतरा बदला, कैमरा सीधा किया और उसकी फोटो खींची। बाद में मैंने देखा कि उसके कत्थई दांत फोटो में नहीं आ पाए, हालांकि उस समय वह पूरी तरह से झलक रहे थे जब उसने बिना किसी लागलपेट के इण्टरव्यु का मेहनताना पेशगी मांगा। उसने कुर्ते के नीचे मारकीन की जेबदार बनियान पहन रखी थी। हल्की-फुल्की हुज्जत के बाद, मुहमांगी से थोड़ी कम रकम, उसकी जेब में गई, एकदम कलेजे के पास।


“अरे भाई, अपनी साथिन का नाम-गाम तो बताओ?” अब मल्हू ने बातचीत की बिसात खोली।


“ओह, यह मेरे साथ हैं, रेबती दास।”


“वाह, बढ़िया नाम” मल्हू ने ऐसे कहा जैसे किसी बात की दाद दे रहे हों।


अचानक, उसी समय “राम नाम सत्त” का ऊर्जाहीन उच्चार कानों में पड़ा। मल्हू उठ खड़े हुए और दो-तीन पल बाद बोले- नौ, मुर्दा मिलाकर दस। गनीमत है। अब तो खैर काफी आसानी हो गई है। कफन-दफन की दुकान वाले शवयात्रा ही नहीं शवयात्रियों की भी व्यवस्था कर देते हैं। देंह और देही का सम्पूरन सौदा करते हैं।


मुझे यह बात बड़ी अजीब लगी। रेबती की नाक हल्की सी सिकुड़ी जिसका मतलब था कि उसे यह बात अच्छी नहीं लगी।


“सरकार ठीक कह रही है, महामारी अब उतार पर है, नौ-दस जने तो दिखे।” मल्हू कुछ सोचते हुए बोले।


मल्हू की आंखे आस्मान में मंडराती चील को देख रही थीं और शायद उसी से कह रही थीं- बड़े खराब दिन थे। लोग बोरी की तरह लाश किसी भी सवारी पर लाद देते थे। चार कन्धे भी मुश्किल से मिलते थे। मन्दिर सूने हो गए थे और स्मशान धघक रहे थे।


“अच्छा, यह सब छोड़ो,” मैंने टोका।


“नहीं, यह छोड़ा नहीं जा सकता।”


“आज से एक महीने पहले यहां आए होते तो मैं आपको इस मन्दिर में नहीं मिलता। यहां ताला लगा हुआ था। मेरी रोजी खत्म हो गई थी। कोरोना गठरी भर-भर के प्रान लूट रहा था। मुझे स्मशान में रोजी-रोटी मिली।” मल्हू बोलते चले गए।


बोलते-बोलते उन्होंने आंख की पुतलियों को ऊपर की ओर टांग दिया जैसे अन्धे आदमी का कुशल अभिनय करते हुए कुछ मंगते करते हैं।


उसी अवस्था में होंठो की मद्धिम गति से उपजता निःशक्त कथन- सुनना आसान है, देखना नहीं। स्मशान रात-दिन चल रहा था। लकड़ी वाला और बिजली वाला भी। मौत की लगन चल रही थी। मैं भटकता हुआ वहां पहुंचा और काम पर लग गया।


मल्हू ने ऊपर टंगी हुई आंखे नीचे उतारी और कुछ पल के लिए खामोश हो गए। फिर, जैसे कि अचानक हमारा ध्यान आया, कुछ इस तरह से बिला सिलसिले के बोले “कुछ खिलाओ-पिलाओ, यार। पैसा दे रहे हो तो क्या मतलब चाय पानी के मंहगे हो गए हो, आंय? हम दें?”


मल्हू ने बनियाइन की जेब की ओर हाथ बढ़ाया। चौंक कर रेबती ने प्रतिवाद किया “अरे, नहीं-नहीं। बोलिए क्‍या खाएगें?”


“यहाँ क्या खाना-पीना। वहीं चलते हैं जहां मिलती है मल्हू वाली चाय।” कहते हुए मल्हू उठे और मन्दिर की परली तरफ से उतरती हुई सीढ़ियों की ओर बढ़े। सीढ़ियां इस मन्दिर की चौहददी निर्धारित करती थीं। इन सीढ़ियों की दीवारों में बीच-बीच में देवी-देवताओं के छोटे-छोटे घरौंदे बने थे। इन घरौंदों की देखभाल करने वाले पुजारी-पंडे आरती की थाली लिए दर्शनार्थियों का ध्यान खींचने की कोशिश में लगे रहते थे।


“बड़ी मशक्कत का काम है, इनका भी।” मल्हू ने मिली-जुली बेरूखी के साथ टिप्पणी की।


वह तो मैं देख रह था कि मान्यता उसी देवता की होती थी जिसके नाम से वह मन्दिर माना-जाना जाता था और उसी का पुजारी असली पुजारी माना जाता था। देवताओं का शास्त्रीय पदानुक्रम यहां नहीं चलता था। यदि मन्दिर गणेश जी का है तो यहां गणेश जी ही मालिक हैं, शिव-पार्वती किसी कोने में ही शोभायमान हो सकते हैं।


सीढ़ियां उतर कर हम लोग खाने-पीने के ठेले पर चहुँचे जहाँ मल्हू ने दो कुल्हिया चाय पी और ब्रेड-पकौड़ा खाया। हम दोनों ने किसी तरह चाय पीकर छुट्टी पाई। लौटे हम दूसरी तरफ की सीढ़ियों से जिसकी शुरूआत में ही पान की गुमटी थी। पान मसाले की झालरें टंगी हुई थीं जिन्हें दिखाकर मल्हू ने हमें बताया कि वह पान मसाला जैसी बकवास चीज नहीं खाते हैं। मल्हू को देखते ही पान वाले ने पान बांधना शुरू कर दिया और इशारे से हम दोनों की पसन्द पूछी। मैंने और रेबती ने जोरदार न में सिर हिलाया।


पान की पुड़िया को हथेली में समेट कर वापस मुड़ते हुए मल्हू बोले “अब इसे थोडी देर में खाऊंगा। बड़ा होशियार पान वाला है। एक बार इसकी दुकान पर पान खा लीजिए तो यह नहीं बताना पड़ता है कि कितना किमाम डालो और कितनी देसी पत्ती।”


इस बार रेबती आगे-आगे जा रही थी। वह रेलिंग पर हाथ रखकर सीढ़ियां नहीं चढ़ती थी। मल्हू की आंखे उसका अनुसरण करती रहीं मानों उनकी नजर उसका सहारा बन जाएगी।


“जरा फिर से तो बताओ इनका नाम।” मल्हू ने नजरों का सहारा देना बन्द करते हुए पूछा क्योंकि सीढ़ियों का आखिरी सिरा आ गया था।


मुझे 'रेबती' का 'ब” बोलते समय अच्छा नहीं लगता था, क्‍योंकि मैं यह मानता था कि शुद्ध उच्चारण 'रेवती' का 'व' है, लेकिन इस उड़िया लड़की ने तर्जनी तानकर कहा था “ब', क्योंकि उड़िया में 'रेबती' ही लिखा, पढ़ा और कहा जाता है। उसका नाम, उसकी बात, मान गया। प्रणब मुखर्जी इतने जिद्दी नहीं थे, हम लोग ठाठ से प्रणव लिखते, पढ़ते और कहते रहे।


हम लोग फिर पुरानी जगह पर आकर इत्मीनान से बैठ गए और कुछ हल्के-फुल्के अंदाज में मल्हू को कुरेदते हुए मैंने कहा, “आप लोग खानदानी भिखारी थे?”


“मनु बाबू, मेरे बाप बड़े उस्ताद भिखारी थे। धोती को तहमद और तहमद को धोती बना कर पहनना उनके लिए बाएं हाथ का खेल था। कभी लंगड़े बन जाते तो कभी लूले। और साहब, आवाज के तो वह धनी थे कि क्‍या बताऊं। कभी निन्हिया रहे हैं, कभी गिड़गिड़ा रहे हैं और कभी ऐसी पाटदार आवाज में मौला का वास्ता देकर तूंबड़ी आगे करते थे मानो देने वालों पर कोई अहसान कर रहे हों। पान खाने का उन्हें बड़ा शौक था।"


अचानक मल्हू हंसने लगे और बोले, “वह कहावत तो आपने सुनी ही होगी, गांड़ पे नहीं लत्ता, पान खांय अलबत्ता।"


रेबती के नथुने ऐसी निराभरण वाक्लीला पर फैलने और सिकुड़ने लगे। मल्हू इन नफीस संकेतों का संज्ञान लेने में असमर्थ थे। उन्होंने हाथ में रखा पान मुंह के कोने में दबाया और कतरा-कतरा रिसता हुआ रस लेने लगे। उनकी आंखे आधी बन्द थीं जो हमें चुप रहने का संकेत थीं। थोड़ी देर बाद अधमुंदी आंखों को धीमी लय में खोलते हुए बोले, “रेबती का नाम लेना एक अच्छे पान को गुलगुलाने जैसा है। होंठ रंग जाते हैं और कपड़ों पर छींटे नहीं पड़ते हैं।”


रेबती के होंठ फड़के और भिंच गए। उसने मेरी ओर तनी हुई निगाहों से देखा जो मुझसे तमतमा कर कह रही थीं कि इस उच्छुंखल आदमी को रास्ते पर लाना होगा नहीं तो पता नहीं क्या बकवाद करे और करता ही चला जाए। मैंने एक गहरी सांस ली और सहानुभूतिहीन गंभीरता के साथ पूछा, “टीका लगवा लिया?”


इस बात पर मल्हू ऐसा गिलगिला कर हँसे कि पीक की फूहार उनके सफेद कपड़ों पर गिरी और दो-चार छींटे मुझे भी मिले। मैं पास के नल पर चला गया जहाँ दर्शनार्थी हाथ-पैर धोते थे। रेवती ने हैंडबैग से छोटी तौलिया निकाली और उन छींटो के अहसास को पोछने लगी। मल्हू भाई हमारी इस हालत से अनजान बनते हुए उठे और पान थूक कर शिकायत की, “बाबू जी, आपने पूरा पान थुकवा दिया। मजा नहीं ले पाया।"


“फुवारा तो आपने मारा था।” रेबती ने उल्टे शिकायत की।


“आप लोगों ने बात ही ऐसी की। मुझे आज तक किसी भी किस्म का टीका नहीं लगा तो अब क्या लगेगा? बचपन से लेकर अब तक तरह-तरह के टीके देखे सुने हैं। मेरे गाँव में तो एक दो ऐसे खुराफाती लोग थे कि एक बार चेचक का टीका लगाने वालों से कह बैठे कि क्‍या सेंत में टीका लगवाएं? खैर, पुरानी बात है, यूं ही याद आ गई।


“इस बार तो बहुत बड़ा हल्ला है, जिन्दगी-मौत का सवाल है, लेकिन इन आंखो ने तो यही देखा कि घाट पर सब बराबर पड़े थे टीका वाले भी और बिना टीका वाले भी। यह देखकर कभी रोया तो कभी हंस लिया। हंसने के लिए माफी चाहता हूँ।”


कहते हुए मल्हू ने हाथ जोड़े और थोड़ी देर चुप रहे।


इसके पहले कि हम उन्हें इस चुप्पी से उबारे वह सर झटकते हुए बोले, “मेरी धरैतिन ने टीके के खिलाफ झण्डा गाड़ दिया है। कहती है कि यह हवाई महामारी, हवाई जहाज वालों की है। कहती है कि कोई भी वायरल हमारी छींक-खंखार से ज्यादा बड़ा नहीं है। उसकी जिद के आगे सब फेल है।”


“आपकी पत्नी?” रेबती ने घरैतिन शब्द को खोलना चाहा।


“अरे नहीं, साथ में रहती है। वह मेरी औरत है और मैं उसका मरद। आइए यहाँ से चार कदम दूर बैठते हैं। मन्दिर की मरजाद रखनी चाहिए।


“ओह!” कहते हुए रेबती ने मेरी ओर देखा और हल्का सा सर हिलाया। चार कदम की दूरी पर भी मन्दिर उतना ही नजदीक था लेकिन जगह बदलते ही हम लोगों को लगा कि अब हम मन्दिर की आंखों से ओझल हैं।


रेबती ने एक प्रतिष्ठित सामाजिक विज्ञान संस्थान से सामाजिक शोध की डिग्री ली थी। घरैतिन-व्यवस्था की इस सूचना ने उसके अन्दर मल्हू के प्रति उत्साह पैदा कर दिया। उसे लगा कि वह आज के लिव-इन सम्बन्धों के किसी आदिम नमूने से मिल रही है। बड़े चाव से उसने दाद दी, “आप तो बड़े जोरदार आदमी निकले, मल्हू जी।”


“अरे नहीं बहिन जी, जोरदार तो वह है। कितनी घाटियां, परबत, बन-जंगल पार करके वह इस नगरी में आई है। इस दुर्गम रास्ते में लोगों ने उसे मेहनतकश मजूरिन से मेहनती पतुरिया बनाना चाहा। लेकिन, वह इस दलदल से बाहर निकल आई; कुछ दिन उसने घरों का कचरा ढोकर गुजर बसर की, लेकिन जल्द ही उसे फूलों का कचरा मिल गया। हम दोनों स्मशान में मिले थे।”


“अरे!” मैं और रेबती एक दूसरे का आश्चर्य अभिव्यक्त करने के लिए एक साथ बोले।


“हाँ, बडी जिगरे वाली है।” मल्हू जोर से बोल कर एकदम से धीमे हो गए।


कुछ देर मल्हू बुदबुदाते रहे, फिर उनकी आवाज शब्द-शब्द साफ होने लगी जैसे बड़ी दूर से चल कर हमारे पास आ रही हो।


“उसकी पूरी देह गुदी हुई है। सब कुछ गुदा है; सांप-नेवला, बाघ-बकरी, ढाल-तलवार, गदा-शंख, देवी-देवता, मछली और मकड़ी... गहरी आकृतियों की कीले ठुंकी हुई हैं- हर घटना और दुर्घटना की अबूझ गवाही है उसकी चित्र ग्रस्त देह। लेकिन अब नहीं। उसका आखिरी गुदना मेरे नाम का है, पूरी देह पर एक अकेला नाम।|”


“उसका नाम क्‍या है?” पूछते समय रेबती का पूरा चेहरा ही सवाली हो गया।


“मकरी। लेकिन, कभी-कभी मैं उसे मकड़ी कह देता हूँ तो बहुत गुस्साती है। दे दनादन घूंसै घूंसा मारती है। किसी कच्चे पहाड़ पर फुदकते बादलों जैसे उसके नरमानरम घूंसे। उसी दरम्यान मौज में आने पर एक गीत गाने लगती है। उमड़-घुमड़ कर ही बरसता है यह गीत। मुझे अच्छी तरह से याद हो गया है। सुनाऊँ?”


हूँ” रेबती ने अबाध आंखों से ही कहा। बदली-बदली सी रेबती।


“गोरी कहवां गोदवली हे गोदना?


बहियां गोदवली, छतियां गोदवली।


बाकी रहल दोनों जोबना


पिया के पलंग पर रोदना।।


गोरी कहवां गोदे हो तोहे गोदना?


अगल न गोदे, बगल न गोदे


गोदे बिचवा ठट्यां।


गोरी अब न गोदाइब गोदना


गोदिया में लेके गोदब गोदनवां।


करब मइया-दइया।।”


गीत की लहक समाप्त होते ही मल्हू ने हमारी ओर ऐसे देखा मानों पूछ रहे हों, समझ में आया? इतने रतिकल्लोलित गीत को समझ कर समझे तो क्या पाया। मुझे लगा कि रेबती की पूरी देंह सांस ले रही है। उसके चेहरे पर क्रोध का उद्रेक नहीं था, गालों में लज्जा का उन्मेष नहीं था। मैं उस मुखमुद्रा का अर्थापन करने में असमर्थ था। यह कौन सी रेबती है?


रेबती के चेहरे का रंग इतना साफ था कि दिल की हर रंगत उस पर झलक जाती थी। उसकी मुखाकृति स्त्री सौन्दर्य के परम्परागत मानकों से थोड़ी भिन्‍न थी; चौड़ी ठुड्डी वाला, कस कर मढ़ा हुआ मजबूत किस्म का चेहरा और बेधड़क आंखे। चेहरे से कुछ ज्यादा ही आगे चलने वाली नाक जो जब तब फूला-पचका करती थी। कठिन है उपांगो के उल्लेख से उसका चेहरा भली-भांति वणित करना। बस यूं समझिये कि न तो उसके नैन-नक्श तीखे थे और न ही ठस। सबल मुखड़े वाली एक खुशशक्ल लड़की जो किसी तरह की कमनीयता का लाभ उठाने के लिए नहीं बनी थी। शेष शारीरिक सम्पदा यथास्थल और यथेष्ट थी जिसे जीन्स और शर्ट में सहेजना बड़ी मशक्कत का काम दिखाई पड़ता। वह सलवार कुर्ता इस काट का पहनती है जिसके विरूद्ध उसकी देह कोई संघर्ष करती हुई नहीं दिखती है। वह पूरी तरह से एक कामकाजी स्त्री है और अपनी भरी-पूरी हथेलियो और उंगलियो की तरह ही भरोसेमन्द। उसके चेहरे में एक ऐसी गतिशीलता थी जिसे देखते समय लगता था कि कोई रोचक किताब अपने पन्ने पलट रही हो। मैं उसकी ओर दिनों-दिन झुक रहा था और मन करता था कि व्यवसायिक सम्बन्धो का जो मुखौटा मैंने पहन रखा है, उसे उतार फेंकू।


“ये देखो, साले जटायु की औलादो को,” मल्हू ने तिकोनी छाप का मास्क लगाए एक भक्त को देखकर कहा। दरअसल, इतनी डिज़ाइनों के मास्क बाजार में आ गए थे कि मास्कधारी किसी भी नभचर या बनचर की तरह दिख सकते थे। हमारे मास्क हमारी ठुड्डियों पर अटके हुए थे। मल्हू मास्क नहीं पहने थे। हमसे उन्होंने किसी मास्क द्रोही की तरह पूछा था “जी नहीं अफनाता?” जटायु-मास्क वाला भक्त किसी सुपात्र की तलाश कर रहा था। जैसे ही उसे एक लूला भिखारी दिखा वह उसकी ओर लपक लिया। मल्हू का गुस्सा हल्का सा बाहर आया “अगर इतने अपाहिज न होते तो इन साले दानवीरों की दानलीला का क्या होता?”


इतना सा कह कर मल्हू अपने कटोरे की ओर देखने लगे। मुझे आश्चर्य हुआ। ऐसी निन्दा अपनी जमात के उपकार करने वाले की। मुझे किसी श्रेणी में इस अपूर्व निन्दक को तो रखना ही था। मुझे लगा कि अपनी रिपोर्ट में मुझे यह दर्ज करना चाहिए कि मल्हू जैसा भिखारी न तो कृतज्ञ होता है और न कृतध्न। तुम भीख दो, हम भीख लें। अपना-अपना काम। बात को एक ठिकाने पर पहुंचाने के बाद मैं सन्तुष्ट हो गया। हम शायद क्षण भर ही इस मुकाम पर ठहरे होंगे कि मल्हू उल्लास से भरकर एक भगतिन को देखने लगे। उधड़े हुए फुटपाथ की बिखरी हुई टाइल्स पर देख-भाल कर पांव जमाती हुई वह मेदस्वी महिला, भिखारियों की बिखरी हुई कतार से गुजरती हुई मल्हू के पास पहुंची। उसके परिधान ने एक ही रंग के तीन रंग साध रखे थे; धानी साड़ी, हरा ब्लाउज और काही मास्क। वह नंगे पांव थी क्‍योंकि चप्पल गाड़ी में छोड़ आई थी। वह प्रसाद चढ़ा कर आ रही थी। हाथ में प्रसाद का डिब्बा और कुछ हार-फूल थे। मल्हू के पास रुक कर उसने जूट की शिल्पित झोलिया में हाथ डाला और सिक्‍के चुनने लगी।


“परेशान न हो, जो हाथ में आय जाय, देव” मल्हू ने सलाह दी।


दोनों ने एक दूसरे का हालचाल पूछा जैसे कि पुराने परिचित करते हैं। 'दूधो नहाओ, पूतो फलो', 'साहब की तरक्की हो' और “बाल बच्चे बने रहें. जैसे पारम्परिक भीखखोर वचनों की उनके बीच कोई जरूरत नहीं थी। न कोई दुआ, न कोई दया।


वह पिछले सात साल से हफ्ते में एक दिन इस मन्दिर में आती थी। आज कितने दिनों बाद वह आई थी? अब से करीब सात साल पहले वह मन्दिर के सहन में लड़के वालों को विवाह हेतु दिखाई गई थी। उन लोगों ने मन्दिर में ही हाँ कर दी थी। उस दिन मारे खुशी के झब्वा भर प्रसाद बंटा था। मन्दिर उसके लिए शुभ-लाभ का द्वार था। विवाह फला-फूला। उसके चेहरे पर पति और बच्चों की दीप्ति थी।


झोलिया में आंख गड़ाकर उसने एक वजनी सिक्‍का निकाला और मल्हू के कटोरे में डाल कर बोली, “अभी रौनक वापस नहीं लौटी। तुम्हें मिला कर छह-सात जने होंगे। कहाँ तो पूरी कतार लगी रहती थी।”


एक सरसरी सी हूँ के अलावा मल्हू ने कोई जवाब नहीं दिया। इस अस्फूट हूँ में 'हाय” की अनुगूंज थी।


इस भगतिन की भक्ति में जी भारी नहीं होता था। हंसती-खेलती, मजेदार-रसेदार भक्ति थी। उसे इस परिसर से चिपकी हुई प्रसाद की दुकानों में मिलने वाली, फूलों के गन्ध से आवेष्टित, शीरा चुआती हुई बूंदी बहुत अच्छी लगती थी। मन्दिर में छोटी-बडी बीसों घंटियां लगी हुई थीं। उन्हें उचक-उचक कर बजाना अच्छा लगता था। इसके अलावा कभी-कभी मन्दिर में एक मृदंगिया आता था। अगर साइत से दिख जाये तो उसके रोमबहुल भुजदंडो की तारतम्यता में दृश्यमान चौड़ी कलाइयों, कठोर हथेलियों और लम्बी उंगलियों की थाप देखना अच्छा लगता था। इसमें तो कोई दोष नहीं है जैसे बूंदी का प्रसाद चढ़ाते समय मुंह में लार आने में कोई दोष नहीं है।


“गया अपने समय से ही, चाहे कोई थाली बजाए या ताली”, कहती हुई वह मंथर गति से अपनी कार की ओर बढ़ चली। यह तीर्थनगर इधर फैला, उधर फैला, किन्तु बड़ा शहर नहीं हो पाया। लोग एक दूसरे को जल्दी ही जानने-पहचानने लगते हैं।


“बड़े खराब दिन थे, बाबू जी। डाक्टर मरीज नहीं देखना चाहता था और महाबाभन मुर्दा। लगता है बड़ी पुरानी बात है कि डाक्टर मरीज को देख कर सन्तुष्ट होता था और महाबाभन मुर्दो की बाट जोहता था। आप कभी स्मशान घाट गई हो, बहिन जी?” मल्हू ने अचानक पूछा।


रेबती ने न में सर हिलाया।


“यह बड़ा चूतियाराग है कि हमारे यहाँ औरतों को स्मशान नहीं जाने देते थे। खैर अब तो जाने लगी हैं और किरिया भी करने लगी हैं। आपको जाना चाहिए। अभी नहीं, फिर कभी। एक बार के बाद डर खत्म हो जाता है। अगर बुजुर्ग का हो तो गमगीनी बहुत देर नहीं रहती। इधर वह लकड़ी चढ़ा नहीं कि उधर निठल्ले दर्दमंद दूर सरक कर बीडी-सिगरेट सुलगा कर गपियाने में जुट जाते हैं। चिता के धुंवुआने से तो नजदीक खड़े घर वालों की ही आंख पसीजती है।”


ऐसा लगा कि मल्हू स्मशान की लपटों में खोये जा रहे हैं। कुछ झुंझला कर मैंने उन्हें टोका “रहने दो, यार। अब बस भी करो।”


“ठीक है, भाई जी” कह कर मल्हू रुके नहीं। बोलते रहे धीमे-धीमे जैसे खुद से कह रहे हो “तीर्थ की धारा में केवल तन नहाता है, स्मशान के तट पर आत्मा नहाती है।” मुझे लगा कि मल्हू में मानवानन्द की चेतना घुसपैठ कर रही है। इसके पहले कि मैं उन्हें झिड़क कर काम पर वापस लाऊें, वह आंखे फेर कर इतने चुप हो गए कि जैसे हमसे और हमारे काम से कोई मतलब ही न हो।


मैंने रेबती की ओर देखा। ऐसे अवसरों के लिए हम दोनों के बीच मौन संवाद की एक शैली विकसित हो रही थी, लेकिन देखता कया हूँ कि वह भी कहीं खोई हुई लग रही थी।


“ए, हलो” मैंने चुटकी बजा कर उसका ध्यान अपनी ओर खींचा। “सॉरी” कह कर वह मुस्काई और झकझोरती हुई आवाज में मल्हू से बोली” आप रैन बसेरा कहाँ करते हैं?”


'ऐं” मल्हू चौके और कुछ इस तरह से अपने तन को छूने लगे जैसे इस सवाल को टटोल रहे हों। “घर है मेरा। रुकिए एक मिनट”, कुछ ऐंठ कर बोलते हुए मल्हू अचानक उठे और चार-छह डग भर कर एक मैले-कुचैले भिखारी के कटोरे में दो सिक्के टपका आए।


“यह भाई गूंगा है, मनु बाबू। लूले-लंगड़े और अन्धे अपाहिज को तो लोग भीख दे देते हैं, लेकिन गूंगे का कोई पुछत्तर हाल नहीं होता, क्योंकि वह रिरिया कर असीस नहीं सकता। मकरी ने मुझसे प्रण करवाया है कि मैं इस गूंगे को कुछ न कुछ दूंगा। है न अजीब कि एक भिखारी दूसरे भिखारी को भीख दें, लेकिन वह है ही अजीब, मेरी मकरी। मेरे साथ रहने आई तो सबसे पहले मेरी नसबन्दी करवाई। अपनी तो उसने पहले ही करा डाली थी, देह पर शुरू हुए हमलों के बाद ही। अब बताइए, दोनों की नसबन्दी की क्या जरूरत, लेकिन कहती रही कि कोई खतरा मोल नहीं लेगी। न जाने कब कौन अराजक बूंद मिल-जुल कर भण्डारा खोल दे। कहती है कि यह दुनिया चाहे जब तक रहे, मल्हू और मकरी उसे आगे नहीं बढ़ाएंगे, पूर्ण विराम!”


मैं आशंकित होकर रेबती की ओर देखने लगा। उसे कैसा लगा यह अनाहूत और अंतरंग प्रलाप| ओह! मैं बच गया जब मैंने देखा कि उसकी आंखों की कोर पर एक मुस्कान सी पैदा हुई और होंठों में घुल गई। मैं आश्वस्त हुआ कि उसने इस अगूढ़ जैव दर्शन को बुहार कर किनारे कर दिया है।


मुस्कान के विभिन्‍न रूप-विरूप ही अन्ततोगत्वा रेबती की भावाभिव्यक्तियां के ऊपर से पर्दा हटाने और गिराते थे। इच्छा होती है कि इस सह्त्रस्मिता स्त्री से कहूँ कि हंसी के गोलगप्पे भी खाया कर, कुछ ठठा कर हंसना भी सीख, चुटकुलो पर हँस, लतीफों पर हँस, लेकिन कह नहीं पाता। वह ज्ञान को डाटा कहती है और ज्ञानी को डाटा पर्सन। किसी भी सर्वेक्षण पर निकलने से पहले जो पृष्ठ भौमिक शोध होता है उसे करने के साथ ही मैंने सुगबुगाती हुई बौद्धिक रंगबाजी के तहत कोरोना की वैश्विक महामारी, उसके पूंजीवादी कारकों और गरीब भारतीय जन की दुर्दशा को समेटते हुए एक वक्तव्य की रचना की थी। मुझे गहरा धक्का लगा कि उसे सुनते समय कलेजे पर हाथ रखने के बजाय वह हंसने की कगार पर पहुँच गई थी। मेरी वाग्मिता का ढोल फट गया, मेरा भाषण सिकुड़ कर मुर्झा गया लेकिन, क्या करूँ कि उसका काम बहुत अच्छा है और उसे काम करते निहारना और भी अच्छा लगता है। मेरी यह हरकत जब पकड़ी जाती तब होंठ भींच कर मुस्कराना तो कोई उससे सीखे। और, गाड़ी को पटरी पर लाना तो वह बखूबी जानती है।


“देखिए, भीख मांगना कानूनन जुर्म है। कभी आपको पुलिस ने रोका टोका नहीं?” उसने मल्हू की वाग्धारा को दूसरी तरफ मोड़ा।


मल्हू तैश में आ गये और गरदन तान कर बोले, “कानून की ऐसी की तैसी, पुलिस की भी। अंग्रेजो को कुछ पता तो था नहीं। एक के बाद एक कानून बनाते चले गए।”


इसी के साथ मल्हू ने एक नितान्त स्थानीय किन्तु अयौनिक लक्षणों वाली मुलायम गाली बकी जो सुनी-अनसुनी रह गई क्‍योंकि गाली के शीघ्रातिशीघ्र अनुक्रम में उन्होंने अगली बात झोंक दी, “अरे, आज से भीख मांगी जा रही है, इस देश में! ये सब साधु-सन्यासी क्या कोई काम-धन्धा करते हैं। भीख ही पर तो पलते हैं और वह भी एक से एक मुस्टंडे। फिर, एक बात बताइए बहनजी, क्या हम भिखारी लोग चोरी करते हैं, गिरहकटी करते हैं, या डाका डालते हैं। किसी की जर, जोरू और जमीन हथियाते नहीं, तो हमसे अच्छी जमात और कौन मिलेगी?”


“तो, तुम्हें पुलिस से अभी तक कोई परेशानी नहीं हुई?” मैंने पूछा।


“कभी कभार होती है, लेकिन वह ऐसी ही है जैसे कभी-कभार घर में बरसात का पानी रिसने लगे और फिर सूख जाए। इतना हम सह लेते हैं। पुलिस वाले देश की इज्जत की दुहाई देते हैं और पकड़ कर एक जगह इकठ॒ठा कर देते हैं।” मल्हू ने बिढुकल यथातथ्य रीति से परेशानी का बखान किया।


मुझे और रेबती को देश की इज्जत की बात पता थी। इस तीर्थ नगरी में विदेशी घुमक्कड़ आते रहते हैं। कभी-कभी कोई महत्वपूर्ण विदेशी अतिथि सांस्कृतिक दौरे पर आता है। तब भिखारियों को दूर हांक दिया जाता है, ताकि देश की गलत तस्वीर न खिंचे। उनके लौटते ही भिक्षुकों की स्वतंत्रता बहाल हो जाती है।


“तुम्हें कितनी बार देश की इज्जत बचानी पड़ी।” मेरे लहजे का तंज मजाकिया अंदाज में घुल मिल गया था।


“याद नहीं। जब देखो तब कोई न कोई अपनी जड़ खोजने यहां आया करता है। जड़ न हुई साली अमरबेल हो गई।” कहते हुए मल्हू उठे और पास के नल से भर-भर पिचकारी कुल्ला करके आ गए।

अब उनका मुँह ताजादम था और बोली हौसले से भरी हुई।


“हाँ तो आप पूछ रही थीं कि मैं रहता कहाँ हूँ, घर-दुआर है या नहीं। बताता हूँ, बताता हूँ, लेकिन पहले मकरी के काम के बारे में बता दूँ। वह मन्दिरों में चढ़ाए गए हार और फूल इकट्ठा करती थी। किसी भी मन्दिर में सबेरे-सबेरे जाइए, बासी फूलों का कचरे ऐसा ढेर मिलेगा। कौन जाने आपको पता हो कि अगरबत्ती इन्हीं फेंके हुए भिनभिनाते फूलों से बनती है। इधर मन्दिर बन्द हुए तो अगरबत्ती बनाने वालों को कूड़े की कीमत पर फूल मिलने बन्द हो गए। उनका धन्धा रुकने लगा तो मकरी ऐसो का दिमाग चलने लगा।”


“आपको पता नहीं होगा कि कारोना के कारण हमारे यहाँ स्मशान का बंटवारा हो गया था। एक तरफ चीन घाट और दूसरी तरफ इंडिया घाट। कोरोना से मरने वालों के लिए चीन घाट और ढंग से जाने वालों के लिए इंडिया घाट। ये ढंग से मरने वाले सज-बज कर आते थे, फूल-हार पहने हुए। उन्हीं फूलों को इकट्ठा करके मकरी अगरबत्ती बनाने वालों को बेचने लगी, क्‍या कलेजा है उसका।”


“खैर कलेजा तो मेरा भी कम नहीं। जब मन्दिर बन्द हुए तब मैंने भी समशान का रुख किया। घर वाले ही शव को हाथ लगाने को तैयार नहीं थे। मैंने एक महाबाभन के यहाँ मजूरी कर ली। मुर्दे को सवारी पर से उतारने और जलाने में मैं उसकी मदद करने लगा। अच्छा पैसा मिला। मैं इस मामले में इतना निडर था कि कुछ लोगों को मुझझे डर लगने लगा। सच में!”


“मेरी निडरता देखकर ही मकरी मेरे पास आई। कहने लगी कि उसके लोग मानते हैं कि बीमारी और कुछ नहीं हमारे ही अंदर रहने वाली सज्जन और दुर्जन आत्माओं की अनवरत लड़ाई है। देवता ही जानते हैं कि कौन जीतेगा, तो इन नए-नए नामों वाले कीड़ों से क्या डरना। उसकी इस तरह की बातों में गाहे-बगाहे कुछ किस्से-कहानी भी जुड़ जाते थे जिनमें सच-झूठ का कुछ पता नहीं। बस इतना पता है कि इस दुस्साहस ने हमारी आमदनी बढ़ा दी और एक दिन सज्जन-दुर्जन को ताख पर रख कर हमारी आत्माएं एक हो गईं। मैं उसे अपनी मड़ैया पर ले आया।”


“मडैया”? रेबती ने जान बूझ कर पूछा क्‍योंकि वह विवरण अधूरा नहीं छोड़ना चाहती थी। आखिरकार हमें अपनी रिपोर्ट अंग्रेजी में लिखनी थी इसलिए हम देसी शब्दों के निकटतम अंग्रेजी पर्याय तक पहुँचना चाहते थे।


“अरे बहिनजी, गाँव के कच्चे-पक्के आसरे के अलावा भी हम अपना एक कामचलाऊ डेरा रखते हैं। इधर-उधर पड़ी खाली जगह में, चार बांस पर अललम गललम तान कर एक छत से चार दीवारें टांग देते हैं। जब कोई खाली कराता है तो दूसरी जगह डेरा डंडा गाड़ देते हैं। हमारा रैन बसेरा एक मुस्तकिल सफर में रहता है। उठल्लू का चूल्हा, बसेरा हमारा। अब कल मिलेंगे।” एकदम से सर झटकते हुए मल्हू बोले।


“कल कहाँ” मैं घबरा कर बोला।


“भरोसा रख्खो, मनु बाबू। यहीं और यहाँ।”


“ठीक है” कहते हुए हम भी वहां से उठ लिए।


“दिलचस्प आदमी है, है न?” कुछ टोह सी लेते हुए मैंने पूछा।


“अडियल और कड़ियल।” थोड़ी दूर निकल कर रेबती ने पलट कर देखा और कहा।


“ओह, हॉँ” मुझे उसका यह मुहावरा अच्छा लगा। इसकी माकूल अंग्रेजी बनानी होगी।


“अच्छा होता कि हम लोग यहाँ का स्मशान, मल्हू की मड़ैया और उसकी मकरी को एक बार देख लेते। हमारा सर्वेक्षण हो जाता।” चलते-चलते मैंने कहा।


“कल ही की तो वापसी है, इतना समय कहाँ है।” रेबती ने चेताया।


इस त्रुटिहीन चेतावनी पर मुँह सिकोड़ कर मैंने इतनी खुश्की से शुक्रिया अदा किया मानों मेरे ऊपर कोई अहसान लाद दिया गया हो। यह लड़की समझना ही नहीं चाहती कि कुछ बातें केवल बतरस्‌ के लिए की जाती हैं।


“श्रीमन, हट या हावल?”


“क्या?”


“मड़ैया की निकटतम अंग्रेजी।”


“हावल, हावल, थैक्यू डियर।” मैंने उल्लासपूर्वक धन्यवाद दिया।


आगे वाले तिराहे पर हम लोगों के रास्ते अलग हो गए। वह एक गर्ल्स हास्टल में रूकी थी और मैं एग्रीकल्चरल युनीवर्सटी में पढ़ाने वाले एक मित्र के यहाँ।


अलग होते हुए उसने कहा “कल बुश्शर्ट टक करके पहनना।”


“सारी, सारी”, मैं अपनी गलती वहीं सुधारने लगा।


“अरे महाराज, इस चलती सड़क का तो ख्याल कीजिए। और हाँ, या तो नए कपड़े सिलवाइए या इन्हीं को ढीला करवाइए।” मैं सौहार्दपूर्वक मजे-मजे झेंपा। मैं बुश्शर्ट या शर्ट पैंट में खोंस कर नहीं पहनता था। उसने मुझे अहसास दिलाया था कि जो लोग शर्ट टक करके नहीं पहनते हैं, वह बड़े उलजलूल नजर आते हैं। यहाँ मेरी समस्या यह थी कि इस सद्भावपूर्ण सलाह के मानने पर छोटी हंडिया जैसा मेरा पेट जो ढीली-ढाली शर्ट में ढंका रहता था, टक करते ही उचक कर सामने आ जाता था। बहरहाल, वह जीती और मैं खुशी-खुशी हारने को तैयार हुआ।


हम लोग करीब तीन-चार साल से एक टीम की तरह कार्य कर रहे थे। शुरू-शुरू की बात है कि मुम्बई के एक प्रोजेक्ट में हमें लोकल ट्रेन से जाना था। हालांकि, वहाँ टिकट खिड़की पर लगी लम्बी-लम्बी लाइने भी मिनटो में खत्म हो जाती हैं, तब भी भीड़ चाहे कतार की हो या समूहों की, मेरा जी बैठने लगता है। जब तक मैं इधर-उधर कर रहा था, वह लपक कर लाइन में लग गई और टिकट ले आई। इसके बाद से रेबती ने उन सारे कामों को अपने जिम्मे ले लिया जो आम तौर पर किसी कामकाजी जोड़े का पुरुष करता है। मैं उसके पीछे-पीछे चलने लगा और सोचने लगा कि अगर मैं इस औरत के हवाले अपनी जिन्दगी कर दूँ तो अच्छी गुजरेगी।


दूसरे दिन हम लोग पाँच मिनट के अन्तराल पर मन्दिर पहुँच गए। मल्हू अभी अपनी जगह पर नहीं पहुंचे थे। दस मिनट पहले तक की तेज धूप अब बादलों की छाया से ढक गई थी। देखते-देखते तेज बूंदा-बांदी होने लगी। किसी भी छांह तले घुसने के लिए अफरा-तफरी मच गई। मन्दिर का प्रांगण सूखे-गीले लोगों से भर गया। कुछ लोग पेड़ों के नीचे दुबक गए। कोई-कोई पानी के सामने सर झुका कर अपनी राह चलता रहा। बचकानी हरकतों के एक-दो शौकीन पानी में निकल कर भीगने लगे। मैंने सोचा कि महज चिढ़ाने के लिए या व्यर्थ की मर्दानगी छांटने के लिए मैं भी पानी में थोड़ी छपछैया करूँ, लेकिन मुझे मल्हू ने इस बेवकूफी से बचा लिया।


एकबारगी तो वह पहचान में नहीं आए, तरबतर, निरुपाय और निष्प्रभ। आपने बरसात में भीगे हुए बन्दर देखे होंगे, पानी से चिपके हुए बाल, पेड़ों और इमारतों में दुबके हुए परेशान हाल प्राणी। मल्हू वैसे ही दिख रहे थे। मन्दिर के छज्जे के नीचे भीगे-भागे खड़े।


हम दोनों ने एक दूसरे को देख कर हाथ हिलाया। पानी जैसा तड़तड़ाता हुआ आया था, वैसे ही गया। उन्होंने रुकने के लिए कहा और दस मिनट में वापस आ गए, लुंगी और बनियाइन पहने हुए। “पायजामा कुर्ता सूखने के लिए डाल आया हूँ। सिगरेट तो अब कोई पीता ही नहीं।” उनके हाथ में सुलगती हुई सिगरेट थी।


इसके पहले हमने किसी भिखारी को इस इत्मीनान के साथ सिगरेट पीते नहीं देखा था। शायद उन्होंने हमारी आँखों में कुछ पढ़ा और सफाई दी” चिलम-गांजा पीने से तो अच्छा है।”


कुछ देर भिखारियों में व्याप्त नशा-पत्ती की चर्चा होने के बाद मैंने पूछा “खाने पीने का क्या इन्तजाम रहता है।”


“खा~ना-पी~ना, खाना-पी~ना!” मल्हू कुछ सोचने लगे मानो यह कोई सहज सवाल नहीं वरन्‌ एक मसला है जिस पर सोच-विचार के बाद ही कुछ कहते बनता है। उत्तर देते समय मल्हू के माथे पर कई रेखाएं बनी और बिगड़ी।


“जितना मैं जानता हूँ कि आदमी घर से टंकी फूल करके निकलता है कि दिन भर में क्‍या मिले और क्या न मिले, लेकिन ज्यादातर तो मिल ही जाता है। तीर्थनगरी है, न। मन्दिरों के भण्डारों में, गुरुद्वारे के लंगरों में पेट भर खाना मिल ही जाता है। भिखारी का पेट बड़ा नहीं होता है। एक्को बन्दे के आप तोंद नहीं पाएंगे जबकि ज्यादातर वह बैठा ही रहता है। क्‍यों? एक तो वह घर से रोजगार की जगह तक पैदल आता-जाता है, दूसरे यह कि हमारा हाजमा बहुत अच्छा होता है।”


मल्हू भाई की काया इकहरी थी, लेकिन कसी हुई, गोकि जिस्म पर जाड़ा, गर्मी और बरसात के इतने निशान थे कि आपको गुमां होता कि उनके शरीर पर भूख, गरीबी और कुपोषण की रेखाएं खुदी हुई हैं।


मैंने सांस खींची और पेट अन्दर करके टीशर्ट की काया सुधारी| सांस बाहर होते ही टीशर्ट पसर गई।


सिगरेट का बुझा हुआ टोटा मल्हू की उंगलियों में देर से अटका हुआ था। उसे जमीन में रगड़ते हुए मल्हू ने छूटी हुई बात का सिरा उठाया, “सच में, हमारा हाजमा बहुत अच्छा होता है। हमारा पेट टाइम-बेटाइम के चक्कर में नहीं पड़ता है। जब, जिस समय, जो मिला, खाया। मेरे बाप तो पूरे अधातुर थे। कहो तो, आधी रात में उठ कर खा लें। सनकी भी थे। एक बार बोले कि बताओ अब तक कि जिन्दगी में हम कै सौ मन आटा, दाल, चावल, तरकारी और पता नहीं क्या-क्या अल्लम गललम खा चुके होंगे, लेकिन हमें देख कर उस तादाद का अन्दाजा लगता है? भिखारी जनम का दूबर होता है।”


रेबती ने इस बात में बेझिझक अपनी बात जोड़ी, “इस हिसाब से मैं दस हजार सैण्डविच खा चुकी हूँगी।”


“तो बहनजी, बीस हजार समोसा हमारा भी जोड़ लेव।” मल्हू ने दावे के साथ कहा।


“हाँ, क्यों नहीं” आधी हँसी और आधी गम्भीरता के साथ वह दोनों अब तक का खाया पिया तौलने लगे।


यह गणना तो दिमाग चकरा देनी वाली थी। यह देह कितनी विकराल है। पता नहीं जब कर्मो का हिसाब होता है तब जीवन भर का खाया-पिया कहीं तौला जाता है या नहीं। उदराग्नि की इस कराल कल्पना से सिहर कर मैंने दोनों को चुप रहने का इशारा किया।


रेबती और मल्हू मेरी ओर आश्चर्य से देखने लगे, इसलिए बिना एक क्षण गंवाए मैंने पूछा “जब भण्डारा और लंगर बन्द हुआ, तब?”


“बस, जैसे तैसे गुजर की। कभी गांव चला गया और खुद बनाया खाया तो कभी भकर-भकर डबलरोटी खाई। आखिरकार, पेट का मसला घाट पर ही तय हुआ। पेट वाकई पापी होता है, मनु बाबू।”


इतना बोल कर मल्हू की आंखें नीची हो गईं। हम उनके मुँह खोलने का इन्तजार करने लगे। जब उन्होंने आंख ऊपर उठाई तो ऐसा लगा कि वह हमसे किसी बड़ी समझदारी की उम्मीद कर रहे हैं।”


“कहिए, मल्हू भाई, निःसंकोच।” मैंने उन्हें आश्वस्त किया।


“भइया जी, कोरोना ने जो-जो दिखाया है उसे देख कर लगे कि हमसे भले तो जनम के अन्धे, जो जैसी आँख लेकर पैदा हुए, वैसी ही लेकर जाएँगें। हमारी आँख तो पथरा गई। कहाँ तो इतनी विधि के साथ सब होता था कि लगता था कि मनुष्य का चोला वाकई में दुर्लभ है; और अब हाल यह कि कई जने लाश फेंक कर जाने लगे, जैसे सगा-सम्बन्धी न हुआ कूड़ा कचरा हो गया। दूर नदी में लोथड़ों के छोटे-छोटे टापू तैरते थे और उन पर चोंचमारी करते थे गिद्ध और कौब्वे। कछुओं की अधडूबी पीठ उन टापुओं से लगी लिपटी रहती थी।”


“गनीमत है कि सभी समय ऐसा नहीं होता था। ढंग से मरने वालों के लड़के-बच्चे अर्थी सजवाते थे और इंडियाघाट ले आते थे। बाद में एक कर्मकाण्डी खड़ा होकर घोषणा करता था कि फलां जगह फलां दिन-समय तेरही होगी, लोग आएं। मुझे भी कभी कभार यह न्योता सुनाई देता था। मैं उनकी लौटती हुई पीठ देखता था और सोचता था कि कितनी मुश्किल से इन्हें छह-सात लोग शवयात्रा में आने को मिले होंगे, और ऊपर से यह भोज की झंझट। टिकठी से नोच कर फेंका हुआ हार-फूल उठाते समय मकरी भी यह सुनती थी और भुनभुनाती थी। तो एक दिन भुनभुनाते हुए ही उसने मुझसे कहा, “अरे तुम क्‍यों नहीं जाते और जीमते।”


“मैं उस पर गुस्सा हुआ। क्‍या बेकार की बात है; मैं कौन सा इनका हितू-मितू या पंडित-पुरोहित हूँ कि इनके यहां तेरही खाने चला जाऊँगा।”


“अरे, जा रे, मंगते भोगी; इन्हें कोई चाव से खाने वाला तो मिलेगा। कैसा वक्‍त है कि आदमी यही नहीं तय कर सकता कि पच्चीस आदमी का खाना बनवाएं या पचास का। जा, इनकी कुछ मदद कर।” मकरी मेरी पीठ में चैली कोंचती हुई कहती।


“मनु बाबू, लोग नहीं जानते कि स्मशान वैराग्य की तरह स्मशान हास्य-व्यंग्य भी होता है।


यही कहते-सुनते मुझमें भी हिम्मत आ गई।”


“तो बहिनजी, कुछ अच्छा पहन ओढ़ कर मैं ऐसे ही एक न्योते में चला गया। किस्मत की बात कि आलीशान कोठी मिली। तस्वीर के हाथ जोड़, थाल में रखी गुलाब की पंखुड़िया चढ़ाई और एक किनारे बैठ कर कहने लगा बड़े नेक आदमी थे, इनका मुझ पर बड़ा उपकार है।


कितना आसान था उस पहले दिन पूड़ी, कचौड़ी, पनीर की तरकारी, कद्दू की सूखी सब्जी और रायता के बाद रसगुल्ले उड़ाना। अब तक कई-कई बार यह भोग लगा चुका हूँ, लेकिन एक शिकायत भी है मुझे। एक-दो जगह खाने में मटर-पुलाव था। यह बात बुरी है। अरे सालों, कहीं तेरही में कच्चा खाना दिया जाता है। यही चलता रहा तो किसी दिन मृतक भोज में दालमखनी भी परसी जाएगी। नालायक कहीं के बरही की दावत और तेरही के भोज में फर्क करना भूल गए। और तो और जैसे शादी में सेहरा गाया जाता था वैसे ही तेरही में शोकगीत बनाकर लोग पढ़ने लगे हैं।”


यह खासा दिलचस्प वर्णन था; शोकगान और शोकगायक।


“बड़े भाग से मानुस तन मिलता है।” मैंने जुमलेबाजी की।


“चलो, किसी तरह कोरोना ढलान पर तो आया। मन्दिर का व्यवहारी मन्दिर में रहेगा, स्मशान का व्यापारी स्मशान में, और मैं अपनी पुश्तैनी रोजी कमारऊँगा, खाऊँगा। और कुछ पूछना है?” जैसे कुछ उखड़ कर मल्हू बोले।


“जी।” कहते हुए रेबती ने बैग से बटुआ निकाला और एक बड़ा नोट सीधे मल्हू के हाथ में दिया। कटोरे का व्यवहार अब शोभता नहीं था।


पूछने के लिए हमारे पास पूरी प्रश्नावली थी; शोधपरक और सुदीक्षित प्रश्नावली। भिखारियों का सिन्डीकेट, अपहृत बच्चों से भीख मंगवाना, भिखारी का अमानवीकरण, एक भिखारी रहित समाज की परिकल्पना, आदि इत्यादि।


मल्हू जो-जो कहते और बताते गए हम उसे थोड़ी बहुत रोक-टोक के साथ अभिलिखित करते रहे। और, अन्त में रेबती का लखटकिया जनानागर्द सवाल “भिखारिनें मर्दों से अपनी रक्षा कैसे करती हैं?”


मल्हू ने बेबाक जवाब दिया “जैसे आप करती हैं।”


रेबती की आंखों से चिंगारियां निकली और ढेर हो गईं। मुझे लगा कि उसकी ओर से मुझे गुस्साना चाहिए। मैं मुँह खोल ही रहा था कि रेबती ने कहा “नो सर, मुझे यही जवाब मिलना चाहिए।”


मल्हू कुछ देर के लिए असहज हुए तो रेबती ने सहारा देते हुए उनसे कहा, “आप मानवानन्द हो जाते तो आप जैसे आदमी से मुलाकात कैसी होती... ऊं?”


मल्हू ने जवाब में हाथ जोड़ दिए।


रेबती ने चेहरे पर झूलती लटों को एक मोहक झटका दिया। डूबते हुए सूरज की लालौंछ उसके आनन से झलकने लगी। मैं इस समय मोहाविष्ट था। मल्हू मुझसे कुछ कह रहे थे।


मुझे सुनाई पड़ा “कहां चले गए, मनु बाबू।”


“हाँ, बताओ।” मैंने सम्हल कर कहा।


“कुछ और पूछना है कि बस किया जाय।” मल्हू के स्वर में तटस्थता थी।


“काफी है” मैं अपने काम पर वापस लौटा।


रेबती- “आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, मल्हू।”


“तो हमारा भी धन्यवाद। बाकी, एक बात हमारे मन में बहुत दिन से कुलबुला रही है कि लोग बाग इस पल-पल मरती हुई दुनिया को फिर-फिर क्‍यों पैदा करते हैं। पता नहीं क्यों, हाथ-गोड़ जलते हुए इतना महसूस नहीं होता, लेकिन जब सूखी घास की तरह केश जलते हैं तो देखा नहीं जाता।”


शवदाह का यह वर्णन सिहरा देने वाला था। मैंने कस कर रेबती की बांह पकड़ ली। वह चौक गई। मेरी पकड़ ढीली हुई, खुली और फिसल गई।


सूरज क्षितिज में डुबकी मार चुका था। हाथों की उंगलियां फोड़ते हुए मल्हू उठे और सीढ़ियों की ओर चल दिए।







MangtaBhogi

|| हरीचरन प्रकाश ||



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